स्वप्निल तिवारी की नजर में देसवा
स्वप्निल तिवारी ने इस लेख का लिंक अमितेश कुमार के लेख की टिप्पणी में छोड़ा था। उन्होंने 'देसवा' के बारे में अपना नजरिया रखा है। जरूरी नहीं कि हम उनसे सहमत हों,लेकिन ब्लॉग की लोकतांत्रिक दुनिया में नजरियों की भिन्नता बनी रहे। यही इसकी ताकत है...इसी उद्देश्य से हम उस लिंक को यहां प्रकाशित कर रहे हैं....मूल लेख यहां पढ़ सकते हैं...http://vipakshkasvar.blogspot.com/2011/05/blog-post_27.html
देसवा
देसवा क्या है? कैसी है ? इसकी समीक्षा तो आने वाले समय में दर्शक करेंगे, लेकिन चूँकि मै एक ऐसी फिल्म का गवाह बना हूँ जिससे एक बदलाव आने की उम्मीद की जा रही थी इसीलिए इस पर अपना नजरिया रखना ज़रूरी हो गया है. और यह लेख इस फिल्म के प्रति मेरा अपना नजरिया है.
भोजपुरी मेरी मातृ भाषा है इस वजह से इससे एक नैसर्गिक स्नेह है मुझे. लेकिन जितना ही इस भाषा से प्रेम है मुझे उतना ही इस भाषा में बनने वाली फिल्मों से दूरी बनाये रखता हूँ, मुझे डर लगता है कि ये फ़िल्में अपनी विषयवस्तु की वजह से इस भाषा से मेरा मोहभंग कर सकती हैं. 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' को छोड़ कर कोई भी दूसरी फिल्म मुझ पर प्रभाव छोड़ने में असफल रही या ये कहना बेहतर होगा कि बहुत बुरा प्रभाव छोड़ा.
पिछले दिनों भोजपुरी गीत संगीत/ फिल्म उद्योग से जुड़े मेरे कुछ मित्रों नें कहा कि तुम भी इसी क्षेत्र में आ जाओ, अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए मैंने भी उनका आग्रह स्वीकार कर लिया. अब बारी थी भोजपुरी फिल्मों की मेकिंग को समझने की और इस चक्कर में मैंने ४-५ फ़िल्में देख डालीं. उन फिल्मों में कहानी, कैमरा, अभिनय सब कुछ स्तरविहीन था. कैमरे की मूव्मेंट में भी अपनी तरह की एक अश्लीलता थी अभिनय और नृत्य तो दूसरी बातें हो गयीं. मैंने उन लोगों से बात की कि कुछ अच्छी कहानी पर भी फ़िल्में बनायीं जाएँ लेकिन बात बनी नहीं और मैं उस तरह का काम करना नहीं चाहता था इसलिए बात बनी नहीं और मैंने उस बारे में सोचना छोड़ दिया.
फिर एक दिन किसी से सुना के देसवा नाम की एक फिल्म बन रही है जो भोजपुरी फिल्मों के परंपरागत ढाँचे से अलग और बढ़िया होगी. उसी वक़्त से फिल्म से एक उम्मीद बंध गयी और ये तय हुआ कि इस फिल्म के प्रीमियर में जरूर जाऊँगा. ऑफिस से समय से पहले निकला और प्रीमियर के समय पर पहुँच गया. नितिन चंद्रा सामने आये और उन्होंने देसवा से जुडी एक जानकारी दी कि यह फिल्म उन्ही की बनाई एक डॉक्युमेंट्री फिल्म का विस्तार है. और फिल्म में यह बात साफ़ नज़र आती है.
बिहार में पूर्व में (फिल्म के मुताबिक ये चीज़ें बिहार में अब नहीं हैं) फैले हुए भ्रष्टाचार, घूसखोरी, अपहरण, छिनैती, अवैध वसूली, अशिक्षा, अस्पतालों का आभाव, ख़राब सड़क, बिहार से नौजवानों का रोज़गार के लिए पलायन, गुवाहाटी में परीक्षा देने गए लोगों की पिटाई, मुंबई में बिहार के लोगों की पिटाई, भोजपुरी गानों /फिल्मों की फूहड़ता आदि चीज़ों को सिलसिलेवार तरीके से छुआ गया है..ध्यान देने लायक बात ये है कि इसे सिर्फ छुआ भर गया है इनकी कोई पड़ताल नहीं की गयी है...तो इन्ही में से कुछ चीज़ों से दुखी होकर फिल्म के नायक पैसा कमाने के लिए अपहरण का रास्ता चुनते हैं और एक बिसनेस-मैन के चक्कर में एक नक्सलवादी नेता को उठा लाते हैं, और यहाँ से फिल्म नक्सल समस्या पर भी एक लेक्चर दे कर अपना रस्ता मोड़ लेती है. किसी और के चक्कर में किसी गुंडे का अपहरण कर लेना, यह कोई नई कहानी नहीं है.
फिल्म में कहानी कहने के लिए ज़रूरत से ज्यादा छूट ली गयी है, नायिका जिस दृश्य में यह जानती है कि नायक अपहरण की साजिश रच रहा है वो दृश्य अति नाटकीयता का शिकार है, ठीक इसी तरह से नक्सली नेता की तस्वीर का बिसनेसमैन की तस्वीर से बदल जाना भी अति नाटकीयता का शिकार है. फिल्म में नायकों को जेल से छुडाने के लिए जान-आन्दोलन होता है, नायक दुखी हैं, मजबूर हैं, गलत कदम वो मजबूरी में उठा रहे हैं लेकिन क्या नक्सली नेता का अपहरण करना और उससे पैसे लेना और जेल चले जाना जनता को इतना उद्वेलित कर सकता है कि वो जन आन्दोलन कर दे? फिल्म का अंत हुआ है बिहार में इन दिनों चल रहे सुशासन को दर्शाते हुए और उस दृश्य को देख कर ऐसा महसूस होता है कि पुराने शासन की कमियाँ दिखाने और वर्तमान शासन को भला बताने के लिए इस फिल्म का निर्माण हुआ है.फिल्म की एडिटिंग और भी बेहतर हो सकती थी, कई दृश्यों के झोल साफ़ नज़र आते हैं.
गीत संगीत का पक्ष वाकई बेहतर है शारदा सिन्हा और भरत शर्मा के गए गए गीत बहुत अच्छे लगे. फिल्म में शंकर नाम के नायक का अपने बड़े भाई से बहस करने का पहला दृश्य बहुत प्रभावित करता है, साथ ही साथ रोजगार समाचार वाले अख़बार में तमंचे को लिपटा हुआ दिखाकर एक दृश्य में बहुत कुछ कह दिया गया.. अभिनय का स्तर भोजपुरी फिल्मों के स्तर से ऊँचा था. भोजपुरी फ़िल्में जिस तरह की होती हैं उसे देखकर तो लगता है कि यह फिल्म ठीक है लेकिन जैसे ही सिर्फ एक फिल्म मान कर सोचना चाहता हूँ यह फिल्म औसत से भी कम लगती है. पटकथा विहीन इस फिल्म से भोजपुरी फिल्म उद्योग में कोई बदलाव आएगा या नहीं यह तो समय बताएगा लेकिन यह फिल्म मुझपर तो प्रभाव छोड़ने में असफल रही. देसवा बनाये जाने का उद्देश्य अच्छा था, लेकिन इस कहानी को चुनने के पीछे क्या उद्देश्य था समझ नहीं आया.
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