जवाब नहीं है पुरस्कारों की शेयरिंग
पिछले गुरुवार को जेपी दत्ता ने 58वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा की। विजेताओं की सूची देखने पर दो तथ्य स्पष्ट नजर आए। पहला, अनेक श्रेणियों में एक से अधिक विजेताओं को रखा गया था और दूसरा, हिंदी की तीन फिल्मों को कुल जमा छह पुरस्कार मिले। आइए इन पर विस्तार से बातें करते हैं।
पिछले सालों में कई दफा विभिन्न श्रेणियों में से एक से अधिक विजेताओं के नामों की घोषणा होती रही है। ऐसी स्थिति में विजेताओं को पुरस्कार के साथ पुरस्कार राशि भी शेयर करनी पड़ती है। लंबे समय से बहस चल रही है कि देश की भाषाई विविधता को ध्यान में रखें, तो राष्ट्रीय पुरस्कारों में बेहतर फिल्मों और बेहतरीन प्रतिभाओं के साथ न्याय नहीं हो पाता। कई प्रतिभाएं छूट जाती हैं या उन्हें छोड़ना पड़ता है, लेकिन पुरस्कारों की शेयरिंग एक प्रकार से आधे पुरस्कार का अहसास देती है। ऐसा लगता है कि विजेता अपने क्षेत्र की श्रेष्ठतम प्रतिभा नहीं है। खासकर पुरस्कार राशि शेयर करने पर यह अहसास और तीव्र होता है।
जेपी दत्ता की अध्यक्षता में गठित निर्णायक मंडल ने पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए इस बार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से सिफारिश की है कि विजेताओं को समान पुरस्कार राशि देने के साथ अलग-अलग ट्राफी भी दी जाए। सैद्धांतिक तौर पर मंत्रालय ने इसे मान लिया है, लेकिन इसके व्यावहारिक पक्ष पर भी ध्यान देने की जरूरत है। ठीक है कि एक से अधिक प्रतिभाओं को एक ही श्रेणी में पुरस्कृत कर उनका सम्मान किया जाएगा, लेकिन उन विजेताओं को यह अहसास तो होगा ही कि वे अपने क्षेत्र के श्रेष्ठतम नहीं हैं। उनके समकक्ष कोई और भी है। कला जगत की श्रेष्ठता खेल से अलग होती है। यहां कोई स्कोरिंग नहीं होती है कि अंकों के आधार पर विजेता का फैसला किया जा सके। कला की गुणवत्ता ज्यूरी विशेष की व्यक्तिगत अभिरुचि से तय होती है। कई बार देखा गया है कि एक ही फिल्म या प्रतिभा के मूल्यांकन में निर्णायक मंडल के दो सदस्य विरोधी राय रखते हैं। ऐसे मामलों में फिर मतों की गणना होती है। बहुत कम ऐसा होता है कि किसी पुरस्कार पर पूरे निर्णायक मंडल की आम सहमति हो।
राष्ट्रीय पुरस्कारों के संदर्भ में एक से अधिक विजेताओं की घोषणा पर आपत्ति करने वालों का तर्क है कि हमें श्रेष्ठतम का ही चुनाव करना चाहिए। अधिक विजेताओं के होने पर पुरस्कार का मान-सम्मान कम होता है। देश बड़ा होने पर भी खेलों की टीमों में निश्चित संख्या से अधिक खिलाड़ी तो नहीं शामिल किए जाते और न ही कभी एक की जगह दो प्रधानमंत्री चुने जाते हैं। फिर फिल्मों के पुरस्कारों पर ऐसा दबाव क्यों बनता है? आलोचकों का एक सुझाव यह है कि सांत्वना पुरस्कार आरंभ करना चाहिए। दरअसल, सांत्वना पुरस्कार हो या एक से अधिक विजेताओं की घोषणा.., दोनों ही स्थितियों में यह संतुष्टिकरण की नीति का फल है। देश बड़ा है और अनेक भाषाओं में उत्कृष्ट काम हो रहा है। हर राज्य को चाहिए कि वह अपने राज्य की भाषा की फिल्मों को अलग से पुरस्कृत करे। जहां जक हिंदी की बात है, तो सर्वाधिक प्रचलित होने पर भी यह किसी प्रदेश विशेष की भाषा नहीं है। हिंदी फिल्मों में सक्रिय प्रतिभाओं को प्रदेश विशेष भी सम्मानित और पुरस्कृत कर सकते हैं।
रही हिंदी फिल्मों को कम पुरस्कार मिलने की बात, तो यह स्वीकार करना चाहिए कि फिलहाल हिंदी में बेहतरीन फिल्में नहीं बन रही हैं। हम बड़ी फिल्में बना रहे हैं और बड़ा बिजनेस भी कर रहे हैं, लेकिन तकनीक और कंटेंट के मामले में हम अन्य भारतीय भाषाओं से बहुत पीछे चल रहे हैं। हिंदी फिल्मों के ज्यादातर निर्माताओं का ध्यान सिर्फ बिजनेस पर रहता है। कुछ फिल्म स्टार भी बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को ही फिल्म की क्वालिटी का फल मानने की भूल करते हैं। अपने इंटरव्यू में बेशर्मी के साथ वे जोर देते हैं कि फिल्म चलनी चाहिए और उसके लिए हर युक्ति जायज है। भले ही उससे सिनेमा का नुकसान हो रहा हो।
Comments
meri baat mane to main yani SACHIN JHAKJHAKIYA to yahi chahta hu ki chahe Jo v ho bas film ko koi nukshan na ho,
ab soch rahe hoge kahe bahi.
To baat bas itni si hai k aane waale samay me e JHAKJHAKIYA v cinema se judne waala hai, bas kuch kaam hai jisme fase hue hai free hote hi aa jayenge, isiliye KISS liye or kiss liye KISS liye.
SACHIN
JHAKJHAKIYA