गालियों का उपयोग, दुरुपयोग
अधिकांश लोग समय के साथ नहीं चलते। ऐसे लोग हमेशा नए चलन का विरोध करते हैं। उनकी आपत्तियों का ठोस आधार नहीं होता, फिर भी वे सबसे ज्यादा शोर करते हैं। वे अपने ऊपर जिम्मेदारी ओढ़ लेते हैं। इधर फिल्मों में बढ़ रहे गालियों के चलन पर शुद्धतावादियों का विरोध आरंभ हो गया है। नो वन किल्ड जेसिका और ये साली जिंदगी में गाली के प्रयोग को अनुचित ठहराते हुए वे परिवार और समाज की दुहाई देने लगे हैं। कई लोगों का तर्क है कि गालियों के बगैर भी इन फिल्मों का निर्माण किया जा सकता था। उनकी राय में राजकुमार गुप्ता और सुधीर मिश्र ने पहले दर्शकों को चौंकाने और फिर उन्हें सिनेमाघरों में लाने के लिए दोनों निर्देशकों ने गालियों का इस्तेमाल किया। इन फिल्मों को देख चुके दर्शक स्वीकार करेंगे कि इन फिल्मों में गालियां संवाद का हिस्सा थीं। अगर गालियां नहीं रखी जातीं, तो लेखक-निर्देशक को अपनी बात कहने के लिए कई दृश्यों और अतिरिक्त संवादों की जरूरत पड़ती।
मुझे याद है कि विशाल भारद्वाज की फिल्म ओमकारा की रिलीज के समय देश के एक अंग्रेजी अखबार और उसके एफएम रेडियो ने फिल्म की आलोचना करते हुए लिखा और बोला था कि इसे परिवार के साथ नहीं देखा जा सकता। हाल-फिलहाल में भोजपुरी फिल्मों के संदर्भ में ऐसा ही जनरल रिमार्क दिया जा रहा है कि इन्हें परिवार के सदस्यों के साथ नहीं देखा जा सकता। पिछले दिनों बिहार में यही सवाल भोजपुरी सिनेमा पर चल रही टीवी बहस के दौरान एक दर्शक ने मुझसे किया और मैंने उनसे पलट कर पूछा कि उन्होंने परिवार के साथ आखिरी हिंदी फिल्म कौन सी देखी है? उनका जवाब था बागबान..। स्थिति स्पष्ट है कि या तो दर्शक परिवार के साथ फिल्में नहीं देख रहे हैं या फिर ऐसी पारिवारिक फिल्में नहीं बन रही हैं। समाज बदल चुका है। संयुक्त परिवार टूट चुके हैं। शहरी मध्यवर्गीय परिवार न्यूक्लीयर इकाइयों में जी रहे हैं, फिर भी बहस और बात करने के लिए परिवारों की दुहाई दी जाने लगती है। ओमकारा के समय एक एफएम चैनल का आरजे हिदायत दे रहा था कि इसे बच्चों के साथ देखने न जाएं। उस भोले और अज्ञानी दर्शक को इतनी जानकारी भी नहीं थी कि ओमकारा एडल्ट फिल्म थी और उसे बच्चे के साथ देखना अनुचित होता।
गालियों और अपशब्दों के उपयोग पर अनुराग कश्यप ने अपने अनुभव शेयर करते हुए बताया था कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का संभ्रांत तबका अपनी फिल्मों में अंग्रेजी का उपयोग धड़ल्ले से करता है, लेकिन उन्हीं शब्दों, पदों और वाक्यों को हिंदी में उसके मिजाज के साथ लिख दें, तो उन्हें दिक्कत हो जाती है। वे कहने लगते हैं कि हिंदी का दर्शक इन्हें हिंदी में स्वीकार नहीं करेगा। उनके संशय को ही दूसरे शब्दों में वे लोग दोहरा रहे हैं, जो नो वन किल्ड जेसिका और ये साली जिंदगी में गालियों को अनुचित ठहरा रहे हैं। हमें देखना होगा कि निर्देशक सिर्फ चौंकाने और भरमाने के लिए गालियों का इस्तेमाल कर रहा है या उन गालियों के बगैर वह अपनी कहानी कह ही नहीं पाएगा। मुझे लगता है कि संवेदनशील निर्देशक कहानी चुनते समय ही तय कर चुके होते हैं उनकी फिल्म की भाषा कैसी होगी और उसमें कैसे संवाद लिखे जाएंगे? हां, कुछ नकलची जरूर फैशन और चलन का दुरुपयोग करते हैं। उनकी फिल्में शुद्धतावादियों की आपत्तियों को आधार दे देती हैं। भारत में एक सेंसर बोर्ड है। अगर सेंसर बोर्ड ने किसी संवाद या शब्द के उपयोग की अनुमति दे दी है, तो उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
हमें वक्त के साथ बदलना होगा। अगर हमें अपने समाज की वास्तविक झलक फिल्मों में देखनी है, तो समाज में सुनी जा रही गालियों के फिल्मों में इस्तेमाल को सहज रूप में लेना होगा। गालियों का मामला भी चुंबन और अंतरंग दृश्यों के समान है। कुछ फिल्मों के लिए आवश्यक इन दृश्यों का दुरुपयोग होता है, तो फिल्में फूहड़ हो जाती हैं।
Comments
यथार्थ को उसी रूप में देने के लिए भाषा का इस्तेमाल करना जरूरी है ....अक्सर ये तर्क मिलता है ...पर इंग्लिश में एक वर्ड है .."जस्टिफाइड यूज़ ".जैसे अल्कोहल के बारे में कहा जाता है" अल्कोहल एब्यूज "....यानि इसका इस्तेमाल ठीक जगह करना ...यथार्थ भी कई किस्मे होती है.....उनमे से एक है थोपा गया यथार्थ ....अन वांटेड ....जैसे गालिया ...हमारे समाज .का ऐसा अन वांटेड यथार्थ है के अगर चुनने की आज़ादी मिले तो सबसे पहले इसे डिस्कार्ड किया जाए ......ये बात मै उस शहर से लिख रहा हूँ जिस शहर के विशाल भारद्वाज है ..जहाँ गालिया किसी भी संवाद का जरूरी हिस्सा है ... ..
हम फिल्मे क्यों बनाते है ..एक सोच एक स्टोरी को ....एक बात को .... ज्यादा से ज्यादा लोगो तक बेहतर तरीके से पहुंचाने के लिए .....बेहतर सिनेमा को डिफाइन करना मुश्किल काम है ....फिर भी हिंदी सिनेमा के एक दौर ने बेहद यथार्थ ओर उस वक़्त की नब्ज़ को पकड़ने वाला सिनेमा दिया है ......"आक्रोश" गोविन्द निहालनी ने उस दौरान बनायीं थी जब कोई माओवाद नहीं था नक्सली शब्द को समझने के लिए डिक्शनरी की मदद की जरुरत पढ़ती थी....पर आदिवासियों के शोषण से लेकर इस समाज ...इस .सिस्टम पर बिना लायूड हुए एक सटीक फिल्म थी.....
मंडी ,मंथन ,निशांत ,अंकुर ,अर्ध सत्य ,मिर्च मसाला ,एक डॉ की मौत , सूरज का सातवा घोडा ,बाज़ार ,कथा ,स्पर्श ,पार ,आज का रोबिन हुड ,अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है , डैडी,जन्म ,तमस ,हज़ार चौरासी की माँ ,चक्र ,पार्टी .....अनेको नाम है ...... इस सिनेमा के इस निर्देशकों ने भी अपनी शर्तो अपनी कमिटमेंट से बिना बाज़ार से समझौता किये बेहतरीन फिल्मे दी है ....
तो कोई बीच का रास्ता इस दौर के वो निर्देशक क्या नहीं निकाल सकते जिनसे उनकी रीच ज्यादा से ज्यादा दर्शको तक हो....ओर बेहतर सिनेमा के दर्शक हिंदी सिनेमा के बेहतरीन अध्याय के गवाह बने .खास तौर से अब जब बाज़ार में एक्सेप्टेंस आ रही है