फिल्म समीक्षा : धोबी घाट
मुंबई शहर फिल्मकारों को आकर्षित करता रहा है। हिंदी फिल्मों में हर साल इसकी कोई न कोई छवि दिख जाती है। किरण राव ने धोबी घाट में एक अलग नजरिए से इसे देखा है। उन्होंने अरूण, शाय, मुन्ना और यास्मिन के जीवन के प्रसंगों को चुना है। खास समय में ये सारे किरदार एक-दूसरे के संपर्क और दायरे में आते हैं। उनके बीच संबंध विकसित होते हैं और हम उन संबंधों के बीच झांकती मुंबई का दर्शन करते हैं। किरण ने इसे मुंबई डायरी भी कहा है। मुंबई की इस डायरी के कुछ पन्ने हमारे सामने खुलते हैं। उनमें चारों किरदारों की जिंदगी के कुछ हिस्से दर्ज हैं। किरण ने हिंदी फिल्मों के पुराने ढांचे से निकलकर एक ऐसी रोमांटिक और सामाजिक कहानी रची है, जो ध्यान खींचती है।
एकाकी अरूण किसी भी रिश्ते में बंध कर नहीं रहना चाहता। उसकी फोटोग्राफर शाय से अचानक मुलाकात होती है। दोनों साथ में रात बिताते हैं और बगैर किसी अफसोस या लगाव के अपनी-अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाते हैं। पेशे से धोबी मुन्ना की भी मुलाकात शाय से होती है। शाय मुन्ना के व्यक्तित्व से आकर्षित होती है। वह उसे अपना एक विषय बना लेती है। उधर मुन्ना खुद को शाय के निकट पाता है। दूर सपने में उसे शाय की निकटता मोहब्बत जैसी लगती है। इधर नए मकान में आया अरूण एक वीडियों के सहारे यास्मिन के बारे में जानने-समझने की कोशिश करता है। मुंबई के ये चारों किरदार अलग-अलग वर्ग और स्तर के हैं। जाहिर सी बात है कि उनके अंतर्संबंधों में लगाव-अलगाव का एक वर्गीय तनाव है। वे न चाहते हुए भी उससे नियमित होते हैं। किरण राव हिंदी फिल्मों के मिथ और दर्शन को इन किरदारों के माध्यम से तोड़ती है। बगैर किसी नारेबाजी या स्पष्ट घोषणा के वह बता जाती हैं कि प्रेम का वर्गीय आधार होता है। यह फिल्म कई स्तरों पर मुंबई शहर की कहानी सुनाती है। फिल्म का शीर्षक एक रूपक है, जो बखूबी फिल्म के भाव को व्यक्त करता है।
किरण राव ने किरदारों के चयन और गठन में भी हिंदी फिल्मों के पुराने समीकरणों का उपयोग नहीं किया है। अरूण, शाय, मुन्ना और यास्मिन जैसे किरदारों का हमने पहले पर्दे पर देखा है, लेकिन वास्तविक चरित्र के रूप में उनकी प्रस्तुति और उनका रियल परिवेश इसे फंतासी का रूप नहीं लेने देता। यहां निम्नवर्गीय मुन्ना का उच्च मध्यवर्गीय शाय से लगाव मोहब्बत में नहीं बदल पाता। उसके लिए किरण कोई नाटकीय स्थिति या ड्रामा नहीं क्त्रिएट करतीं। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग नैचुरल लाइट और रियल लोकेशन पर की गई है। अमच्योर किस्म के एक्टर अपने किरदारों को सहत और वास्तविक रहने देते हैं। यहां तक कि आमिर खान भी एक सामान्य किरदार के तौर पर पेश किए गए हैं। धोबी घाट एक सुंदर प्रयोग है। इसकी पटकथा मेंआगे-पीछे छलांग लगाती घटनाएं कई बार चौंकातीे हैं। खास स्टाइल में फ्लैशबैक या लीनियर कहानी देखने के आदी दर्शकों को यह फिल्म अजीब सी लग सकती है। वहीं विश्व सिनेमा से परिचित और अपारंपरिक विषयों के शौकीन दर्शकों को धोबी घाट संतुष्ट करेगी।
धोबी घाट में अरूण के किरदार में आमिर खान को लेकर किरण राव ने जोखिम का काम किया है। इस फिल्म में वे अपने स्टारडम के बगैर हैं। अरूण को पर्दे पर साकार करने में उनकी मेहनत नजर आती है। वे स्वाभाविक नहीं लगते। उसकी वजह यह हो सकती है कि फिल्म देखते समय भारतीय दशर््क और खास कर हिंदी फिल्मों के दर्शक आमिर खान को उनकी इमेज से अलग अरूण के रूप मे नहीं देख पाएंगे। अगर एक सामान्य अभिनेता के तौर पर आमिर खान को देखें तो उन्होंने सहज दिखने और रहने की कोशिश की है। इस फिल्म की उपलब्धि मोनिका डोगरा और कृति मल्होत्रा हैं। दोनों का अपरिचित चेहरा उनके लिए मददगार साबित होता है। हम शाय और यास्मिन को उनके निभाए रूप में स्वीकार लेते हैं। प्रतीक निश्चित ही अपरंपरागत और प्रतिभाशाली अभिनेता हैं। उनमें हिंदी फिल्मों के अभिनेताओं के लटके-झटके नहीं हैं। उन्होंने मुन्ना के मनोभावों को दृश्यों के मुताबिक व्यक्त किया है। कुछ दूश्यों में वे बहुत प्रभावित करते हैं।
धोबी घाट में मुंबई भी एक किरदार है। मुंबई शहर को हम अलग-अलग रूपों में हिंदी फिल्मों में देखते रहे हैं। किरण ने इस फिल्म में न तो उसे सजाया और न उसे विद्रूप किया है। इस फिल्म में मुंबई को उसकी वास्तविकता में देखना अच्छा लगता है।
रेटिंग- *** तीन स्टार
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