बदलता दौर, बदलते नायक-मंजीत ठाकुर
भारत में सिनेमा जब शुरु हुआ, तो फिल्में मूल रुप से पौराणिक आख्यानों पर आधारित हुआ करती थीं। लिहाजा, हमारे नायक भी मूल रुप से हरिश्चंद्र, राम या बिष्णु के किरदारों में आते थे।
पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ (1931) के पहले ही हिंदी सिनेमा की अधिकांश परिपाटियाँ तय हो चुकी थीं, लेकिन जब पर्दे पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं तोअभिनेताओं के चेहरों और देह-भाषा के साथ अभिनय में गले और स्वर की अहमियत बढ़ गई।
1940 का दशक हिंदी सिनेमा का एक संक्रमण-युग था। वह सहगल, पृथ्वीराज कपूर,सोहराब मोदी, जयराज, प्रेम अदीब, किशोर साहू, मोतीलाल, अशोक कुमार सरीखे छोटी-बड़ी प्रतिभाओं वाले नायकों का ज़माना था तो दूसरी ओर दिलीप कुमार, देव आनंद, किशोर कुमार और भारत भूषण जैसे नए लोग दस्तक दे रहे थे।
पारसी और बांग्ला अभिनय की अतिनाटकीय शैलियां बदलते युग और समाज में हास्यास्पद लगने लगीं, उधर बरुआ ने बांग्ला ‘देवदास’ में नायक की परिभाषा को बदल दिया।
अचानक सहगल और सोहराब मोदी जैसे स्थापित नायक अभिनय-शैली में बदलाव की वजह से भी पुराने पड़ने लगे। मोतीलाल और अशोक कुमार पुराने और नए अभिनय के बीच की दो अहम कड़ियाँ हैं। इन दोनों में मोतीलाल सहज-स्वाभाविक अभिनय करने में बाज़ी मार ले जाते हैं। लेकिन कलकत्ता में लगातार तीन साल चलने वाली ‘क़िस्मत’ में प्रतिनायक के किरदार में अशोक कुमार एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे।
आजा़दी के आसपास ही परदे पर देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार सितारे की तरह उगे। दिलीप कुमारनुमा रोमांस का मतलब था ट्रैजिक रोमांस। दिलीप कुमार,रोमांस हो या भक्ति, मूल रुप से अपनी अदाकारी को केंद्र में रखते थे, और वे ट्रेजिडी किंग के नाम से मशहूर भी हो गए। दिलीप कुमार ने अभिनय की हदें बदल डालीं।
एक मज़ेदार प्लेब्वॉय बनकर ही रह गए देवानंद की लोकप्रियता कई बार दिलीप कुमार और राजकपूर से ज़्यादा साबित हुई। इस तिकड़ी में देव ही ऐसे थे जिनकी नकल करोड़ों दर्शकों ने की, लेकिन उनके किसी समकालीन ने उसकी नकल करने की ज़ुर्रत नहीं की।
राज कपूर, एक अच्छे अभिनेता तो थे ही लेकिन उससे भी बड़े निर्देशक थे। अपनी फिल्मों में अदाकार के तौर पर उन्होंने हमेशा आम आदमी को उभारने की कोशिश की। आर के लक्ष्मण के आम आदमी की तरह के चरित्र उन्होने रुपहलेपरदे पर साकार करने की कोशिश की।
राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद, ये तीनों एक स्टाइल आइकॉन थे। लेकिन इन तीनों का जादू तब चुकने लगा, जब एक किस्म का रियैलिटी चेक (जांच) जिदंगी में आया।
इस तिकडी़ के शबाब के दिनों में ही बलराज साहनी ने दो बीघा ज़मीन केज़रिए मार्क्सवादी विचारों को सिनेमाई स्वर दिए। दो बीघा ज़मीन उस ज़माने की पहली फिल्म थी, जिसमें इटालियन नव-यथार्थवाद की झलक तो थी ही,इसका कारोबार भी उम्दा रहा था।
फिल्म में बेदखल सीमांत किसान की भूमिका को बलराज ने जीवंत कर दिया था। बेहद ‘हैंडसम’रहे साहनी हिंदी सिनेमा के पहले ‘असली’ किसान-मज़दूर के रूप में पहचाने गए। दरअसल, अभिनय के मामले में अपने समकालीनों से बीस ही रहे साहनी, ओम पुरी, नसीर और इरफान के पूर्वज ठहरते हैं।
गुरुदत्त बेहद निजी किस्म की फिल्में बनाते थे। लेकिन उनका दायरा बेहद सार्वजनिक हुआ करता था।
इसी दशक में मदर इंडिया भी आई। परदे पर विद्रोह और आदर्शवाद साथ दिखा। भारत माता के रुप में उकेरी गई नरगिस ने अपने ही डकैत बेटे को गोली मारकर आदर्शवाद की नई छवि गढ़ दी। लेकिन दर्शकों का एक ऐसा वर्ग तैयार होना शुरु हो चुका था, जिसकी सहानुभूति डकैत बेटे सुनील दत्त से थी।
उधर अभिनय-शैली के मामले शुरु में एल्विस प्रेस्ली से प्रभावित शम्मी कपूर ने बाद में खुद की जंगली’ शैली विकसित की । इसका गहरा असर जितेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती वगैरह से होता हुआ गोविंदा तक आता है। यह संकोचहीन नाच-गाने का पॉपुलर कल्चर है।
1969 में को शक्ति सामंत की ब्लॉकबस्टर आराधना ने रोमांस के एक नए नायक को जन्म दिया, जो पूछ रहा था, “मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू....”इस के साथ ही हिंदी सिनेमा में सुपरस्टारडम की शुरुआत हुई। राजेश खन्ना दिलीप कुमार की परंपरा में थे और रोमांटिक किरदारों में नजर आते रहे। किशोर कुमारकी आवाज़ गीतों के लिए परदे पर राजेश खन्ना की आवाज़ बन गई, और इसने राजेश खन्ना को एक मैटिनी आइडल बना दिया। परदे पर पेड़ों के इर्द-गिर्द नाच-गाने लोगों को दुनियावी मुश्किलों से कुछ देर के लिए तो दूर कर देते थे लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं जैसी प्रेमकहानियों को देखकर कर कसमसा रहा था।
लेकिन तभी परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद फिल्म जंज़ीर में एक बाग़ी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना। गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी। और उस वक्त जब देश जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया।
विजय नाम का यह नौजवान इंसाफ के लिए लड़ रहा था, और उसे न्याय नहींमिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता था।
लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया। जंजीरमें उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टरी छोड़ देने वाला नौजवान देव तक अधेड़ हो जाताहै। देव में इसी नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं, और वह समझौतावादी हो जाता है।
Comments
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आज दो दिन बाद नेट सही हो पाया है!
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शाम तक सभी के ब्लॉग पर
हाजिरी लगाने का इरादा है!
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