दरअसल:प्रतिभा और प्रतिमा
हिंदी फिल्मों समेत पॉपुलर कल्चर के सभी क्षेत्रों में इन दिनों प्रतिमाओं की तूती बोल रही है। इन्हें आइकॉन कहा जा रहा है और उन पर केंद्रित रिपोर्ट, फीचर और समाचार लिखे जा रहे हैं। इस भेड़चाल में प्रतिभाएं कहीं पीछे रह गई हैं। उनकी किसी को चिंता नहीं है। सभी प्रतिमाओं के पीछे भाग रहे हैं। कहते हैं आज का बाजार इन्हीं प्रतिमाओं की वजह से चल रहा है।
फिल्मों की बात करें, तो अभी ऐसी अनेक प्रतिमाएं मिल जाएंगी, जिनमें मौलिक प्रतिभा नहीं है। ऐसी प्रतिमाएं किसी न किसी तरह चर्चा में बनी रहती हैं। कहा और माना जाता है कि मीडिया और पीआर का पूरा तंत्र ऐसी प्रतिमाओं को पहले क्रिएट करता है और फिर उन्हें भुनाता है। किसी जमाने में पेपर टाइगर हुआ करते थे। इन दिनों पेपर आइकॉन हो गए हैं। इनका सारा प्रभाव कागजी होता है। कई ऐसे फिल्म स्टार हैं, जिन्हें हम दिन-रात देखते, सुनते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन महीनों-सालों से उनकी कोई फिल्म नहीं आई है। कभी कोई आ भी गई, तो दर्शक उसे देखने नहीं गए। फिर आश्चर्य होता है कि क्या सचमुच पाठक ऐसे स्टार्सं के बारे में पढ़ना चाहते हैं या किसी प्रपंच के तहत वे अखबारों और टीवी के पर्दे पर मुस्कराते नजर आते रहते हैं।
किसी स्टार का नाम लेकर उसकी तौहीन करने की मेरी कोई मंशा नहीं है, लेकिन अनेक पॉपुलर और बिग स्टार अपनी ही फिल्मों के सपोर्टिग स्टार के टैलेंट के पासंग भी नहीं होते। फिर भी वे छाए रहते हैं। उन्हें केंद्रीय भूमिकाएं मिलती हैं। उन्हें ज्यादा पारिश्रमिक मिलता है। वे अपने प्रभाव से प्रतिभाओं को हाशिए पर रखते हैं और कहीं न कहीं इस साजिश में भी संलग्न रहते हैं कि मौलिक प्रतिभाओं को बड़े अवसर न मिल जाएं। वे इरादतन उन्हें धकियाते हैं और मंच से गिरा भी देते हैं। अफसोस की बात है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के इस अंदरूनी षड्यंत्र और कुचक्र पर कभी कुछ नहीं लिखा जाता। कभी कोई पत्रकार लिखने का साहस करे, तो हमारे स्टार जल्दी ही उसकी छुट्टी करवा देते हैं। अगर कभी वे ऐसा नहीं कर पाते, तो उसे वंचित और अछूत बनाकर रख देते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी अनेक अनकही दास्तानें हैं।
प्रतिभा और प्रतिमा में भ और म का फर्क है। पेट भरने पर प्रतिभा खुद ही प्रतिमा बनने के लिए सक्रिय हो जाती है। सभी क्षेत्रों में देखा गया है कि शुरुआती दिनों में अपनी प्रतिभा की विलक्षणता से चौंकाने और जगह बनाने के बाद ज्यादातर कलाकार चूकने लगते हैं। उनमें प्रतिभा की ठोस पूंजी नहीं रहती और न निरंतर अभ्यास से वे उसे बढ़ाने की कोशिश करते हैं। नतीजा यह होता है कि वे आरंभिक गौरव का मुकुट धारण कर लेते हैं। वे चाहते हैं कि उसी जगमगाहट में उनकी जिंदगी निकल जाए।
हमारा यह दौर चकाचौंध से भरा है। हमें केवल चमकती चीजें ही दिखाई पड़ती हैं। यही वजह है कि जनमानस में भी प्रतिभाओं से अधिक प्रतिमाओं की पूजा होती है। हमारी संस्कृति में भी मूर्ति पूजा का चलन है, जो भ्रष्ट रूप में हमारे सामाजिक जीवन में प्रतिमा पूजा और प्रशंसा के तौर पर सामने आ रहा है। जरूरत है कि हम अपने समय की प्रतिभाओं को पहचानें। उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने के अवसर दें और उनके योगदान को रेखांकित करें। उन गुमनाम प्रतिभाओं की भी प्रतिमाएं बताएं। दरअसल, हमें प्रतिभा की कद्र करनी चाहिए। प्रतिभा हो तभी प्रतिमा का महत्व है।
Comments
आपकी बात सही है.