फ़िल्म समीक्षा:तेरे संग;चल चलें;अज्ञात

सतीश कौशिक का बेहतर अभिनय तेरे संग
किशोरावस्था के प्रेम और गर्भ जैसी जरूरी सामाजिक समस्या पर केंद्रित सतीश कौशिक की तेरे संग कमजोर पटकथा और हीरो-हीरोइन के साधारण अभिनय के कारण आवश्यक प्रभाव नहीं डाल पाती। इस विषय पर विदेशों में सुंदर, मार्मिक और भावपूर्ण फिल्में बन चुकी हैं।
माही (15 वर्ष की लड़की) और कबीर (17 वर्ष का लड़का) की इस प्रेम कहानी में फिल्मी संयोग, घटनाओं और प्रसंगों की भरमार है। माही और कबीर डिफरेंट बैकग्राउंड के किशोर हैं। उनका मिलना-जुलना, दोस्ती होना और फिर शैंपेंन के नशे में हमबिस्तर होना..। ये सारे प्रसंग अतार्किक और शुद्ध फिल्मी हैं। सतीश कौशिक से ऐसी कमजोर कोशिश की अपेक्षा नहीं की जा सकती। रूसलान मुमताज और शीना शाहाबादी अभी अभिनय के ककहरे से अपरिचित हैं। उनमें बाल कलाकारों की मौलिक स्वाभाविकता भी नहीं बची है। वे सिर्फ सुंदर और मासूम दिखते हैं। तेरे संग सतीश कौशिक के लिए देखी जा सकती है। कबीर के निम्नमध्यवर्गीय पिता की भूमिका उन्होंने पुरअसर तरीके से निभाई है।
माही (15 वर्ष की लड़की) और कबीर (17 वर्ष का लड़का) की इस प्रेम कहानी में फिल्मी संयोग, घटनाओं और प्रसंगों की भरमार है। माही और कबीर डिफरेंट बैकग्राउंड के किशोर हैं। उनका मिलना-जुलना, दोस्ती होना और फिर शैंपेंन के नशे में हमबिस्तर होना..। ये सारे प्रसंग अतार्किक और शुद्ध फिल्मी हैं। सतीश कौशिक से ऐसी कमजोर कोशिश की अपेक्षा नहीं की जा सकती। रूसलान मुमताज और शीना शाहाबादी अभी अभिनय के ककहरे से अपरिचित हैं। उनमें बाल कलाकारों की मौलिक स्वाभाविकता भी नहीं बची है। वे सिर्फ सुंदर और मासूम दिखते हैं। तेरे संग सतीश कौशिक के लिए देखी जा सकती है। कबीर के निम्नमध्यवर्गीय पिता की भूमिका उन्होंने पुरअसर तरीके से निभाई है।
सराहनीय प्रयास चल चलें
युवा निर्देशक उज्जवल सिंह ने सीमित बजट में एक महत्वपूर्ण फिल्म बनाने की कोशिश की है। प्रतियोगिता और सफलता के इस दौर में स्कूली बच्चों पर बढ़ते दबाव और तनाव के विषय को उन्होंने इलाहाबाद की पृष्ठभूमि में रखा है। ऐसी फिल्म में ग्लैमर और चकाचौंध नहीं हो सकता।
इलाहाबाद के एक स्कूल में 11वीं के छात्रों का एक समूह है। उसमें लड़के-लड़कियां दोनों हैं। सभी अपने अभिभावकों से दुखी हैं, क्योंकि उन पर बेहतर प्रदर्शन का अनचाहा दबाव है। इनमें से एक इस दबाव को नहीं सह पाता और आत्महत्या कर लेता है। उसके सहपाठी मानते हैं कि अभिभावक की जोर-जबरदस्ती के कारण ही उसने अपनी जान ली है। वे शहर के एक वकील से मिल कर अपने अभिभावकों पर मुकदमा कर देते हैं। हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बहस चलती है। बच्चों के प्रति परिवार, समाज और सरकार के रवैए की परतें खुलती हैं। पता चलता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में ही खोट है। जो ज्ञानार्जन पर जोर देने के बजाए छात्रों को धनार्जन के लिए तैयार करती है। उज्जवल सिंह ने बच्चों से अच्छा काम लिया है। उनकी मासूमियत और सवाल दोनों आकृष्ट करते हैं। कोर्ट ड्रामा थोड़ा नकली लगता है। वकील बने मिथुन चक्रवर्ती और अनूप सोनी के लंबे बाल खटकते हैं। कोर्ट रूम ड्रामा में नाटकीयता नहीं उभर पाई है।
इलियाराजा के संगीत निर्देशन में पीयूष मिश्रा के गीत नए शब्द और भाव के साथ हैं। लोरीनुमा गीत में मैथिली लोकगीत की दो पंक्तियों का टच सुंदर है। निश्चित ही यह फिल्म और बेहतर हो सकती थी, फिर भी उज्जवल सिंह का प्रयास सराहनीय है।

इलाहाबाद के एक स्कूल में 11वीं के छात्रों का एक समूह है। उसमें लड़के-लड़कियां दोनों हैं। सभी अपने अभिभावकों से दुखी हैं, क्योंकि उन पर बेहतर प्रदर्शन का अनचाहा दबाव है। इनमें से एक इस दबाव को नहीं सह पाता और आत्महत्या कर लेता है। उसके सहपाठी मानते हैं कि अभिभावक की जोर-जबरदस्ती के कारण ही उसने अपनी जान ली है। वे शहर के एक वकील से मिल कर अपने अभिभावकों पर मुकदमा कर देते हैं। हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बहस चलती है। बच्चों के प्रति परिवार, समाज और सरकार के रवैए की परतें खुलती हैं। पता चलता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में ही खोट है। जो ज्ञानार्जन पर जोर देने के बजाए छात्रों को धनार्जन के लिए तैयार करती है। उज्जवल सिंह ने बच्चों से अच्छा काम लिया है। उनकी मासूमियत और सवाल दोनों आकृष्ट करते हैं। कोर्ट ड्रामा थोड़ा नकली लगता है। वकील बने मिथुन चक्रवर्ती और अनूप सोनी के लंबे बाल खटकते हैं। कोर्ट रूम ड्रामा में नाटकीयता नहीं उभर पाई है।
इलियाराजा के संगीत निर्देशन में पीयूष मिश्रा के गीत नए शब्द और भाव के साथ हैं। लोरीनुमा गीत में मैथिली लोकगीत की दो पंक्तियों का टच सुंदर है। निश्चित ही यह फिल्म और बेहतर हो सकती थी, फिर भी उज्जवल सिंह का प्रयास सराहनीय है।
हंसी आएगी रामू की अज्ञात पर
राम गोपाल वर्मा या तो कुंद हो चुके हैं या अपनी धार का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। अंडरवर्ल्ड, खौफनाक और प्रेमभाव की अनेक फिल्में निर्देर्शित कर चुके राम गोपाल वर्मा की अज्ञात भी उनकी ़ ़ ़ आग की तरह भविष्य में भूल के तौर पर गिनी जाएगी।
एक जंगल में शूटिंग करने गई फिल्म यूनिट के सदस्य एक-एक कर मारे जा रहे हैं। उन्हें कौन मार रहा है? कोई नहीं जानता। हत्यारा भयावह और
क्रूर है। यह सिर्फ हत्या होने के बाद लाश को देख कर पता लगता है। राम गोपाल वर्मा ने इस फिल्म की शूटिंग श्रीलंका के जंगलों में की है। जंगल को खौफनाक किरदार बनाने में वे असफल रहे हैं। बैकग्राउंड साउंड से खौफ क्रिएट करने की हर कोशिश में वह दर्शकों को डराने के बजाए हंसा देते हैं। किसी खौफनाक फिल्म को देखते हुए हंसी आए तो क्या कहेंगे? एक सवाल है कि अज्ञात में पहले प्रोड्यूसर, फिर डायरेक्टर, उसके बाद कैमरा मैन और फिर एक्शन डायरेक्टर की हत्या क्यों होती है? क्या फिल्म इंडस्ट्री में प्रचलित स्टेटस के हिसाब से यह क्रम रखा गया है। पर्दे के पीछे काम करने वाले क्यों पहले मौत के शिकार होते हैं? फिल्म अचानक से खत्म होती है और पर्दे पर अज्ञात-2 के जल्दी आने की सूचना दी जाती है। मुमकिन है अज्ञात-2 में रामू डरा सकें, इस बार तो सिर्फ हंसी आई रामू की इस कोशिश पर..।
एक जंगल में शूटिंग करने गई फिल्म यूनिट के सदस्य एक-एक कर मारे जा रहे हैं। उन्हें कौन मार रहा है? कोई नहीं जानता। हत्यारा भयावह और

Comments
:)
and good story
actor and actress are so cute