दरअसल:सोचें जरा इस संभावना पर
-अजय ब्रह्मात्मज
आए दिन देश के कोने-कोने से फिल्मों में जगह पाने की कोशिश में हजारों युवक मुंबई पहुंचते हैं। हिंदी फिल्मों का आकर्षण उन्हें खींच लाता है। इनमें से सैकड़ों सिनेमा की समझ रखते हैं। वे किसी उन्माद या भावातिरेक में नहीं, बल्कि फिल्मों के जरिए अपनी बात कहने की गरज से मुंबई आते हैं। फिल्मों में आने के लिए उत्सुक हर युवक पर्दे पर ही चमकना नहीं चाहता। कुछ पर्दे के पीछे हाथ आजमाना चाहते हैं। उनके पास अपनी कहानी है, अपना नजरिया है और वे कुछ कर दिखाना चाहते हैं।
मुंबई में सक्रिय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे निश्चित समयावधि में अवसर और परिणाम हासिल किया जा सके। फिल्मी परिवार के बच्चों को इस विमर्श से अलग कर दें, तो भी कुछ उदाहरण मिल जाते हैं, जहां कुछ को तत्काल अवसर मिल जाते हैं। वे अपनी मेहनत, कोशिश और फिल्म से दर्शकों को पसंद आ जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद परिवारवाद, लॉबिंग और संकीर्णता के बावजूद हर साल 20 से 25 नए निर्देशक आ ही जाते हैं। पर्दे के पीछे और पर्दे के आगे भी हर साल नए तकनीशियन और कलाकार आते हैं। यह कहना अनुचित होगा कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नए लोगों को बिल्कुल जगह नहीं मिलती। जगह मिलती है, लेकिन उसके लिए संघर्ष, धैर्य, लगन और मुस्तैदी आवश्यक है।
बॉलीवुड में पूरे भारत, खासकर हिंदी प्रदेश से आए व्यक्तियों को अवसर नहीं मिलते। चूंकि फिल्म निर्माण एक व्यवसाय भी है। इसलिए नए व्यक्ति को अवसर देने से पहले कंपनियां अच्छी तरह सोच-विचार करती हैं। उन्हें ठोकने-बजाने के बाद ही फिल्मों में काम मिलता है। सिर्फ हिंदी प्रदेश की ही बात करें, तो उनकी कुल आबादी 60-65 करोड़ के आसपास होगी। हिंदी में इन दिनों 150 से 200 फिल्में बनती हैं। हर फिल्म के साथ कम से कम 500 से 750 व्यक्ति सक्रिय ढंग से जुड़े होते हैं। इन आंकड़ों के गुणनफल पर गौर करें, तो पाएंगे कि करोड़ों की आबादी में चंद लाख ही भाग्यशाली साबित होते हैं। हर पेशे में रोजगार का कमोवेश ऐसा ही दबाव है।
सही है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के विकेंद्रीकरण पर विचार-विमर्श आरंभ हो। आजादी से पहले कोलकाता, लाहौर और मुंबई में हिंदी फिल्में बनती थीं। उस दौर में मराठी, बंगाली और पंजाबी प्रतिभाओं ने हिंदी फिल्मों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आजादी के बाद मुंबई हिंदी फिल्मों का मुख्य निर्माण केन्द्र हो गई। बीच-बीच में चेन्नई और हैदराबाद में भी फिल्में बनती रहीं, लेकिन हिंदी प्रदेशों में फिल्म निर्माण पर जोर और ध्यान नहीं दिया गया। हिंदी प्रदेश की सरकारों ने कभी इस दिशा में प्रयास नहीं किया कि वे अपने प्रदेश की प्रतिभाओं को आमंत्रित करें और स्थानीय रचना, प्रतिभा और सुविधाओं का उपयोग करते हुए अपने प्रदेश के नागरिकों की रुचि की फिल्मों का निर्माण करें। नतीजा यह हुआ कि आजादी के 62 साल बाद भी इन प्रदेशों में फिल्म निर्माण की मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं।
अगर हिंदी प्रदेश की सरकारें आवश्यक सुविधाएं दें, तो वहां फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हो सकती है। इन दिनों हिंदी फिल्मों का कलेवर बदल चुका है। मुख्य रूप से मल्टीप्लेक्स के दर्शकों के लिए बन रही फिल्मों से देसी दर्शकों का मनोरंजन नहीं हो पा रहा है। बीच में भोजपुरी फिल्मों ने इस शून्य को भरा, लेकिन कुछ ही समय बाद सब खत्म हो गया। अब कोई ऐसी उम्मीद उसमें नजर नहीं आ रही है।
लखनऊ, पटना, भोपाल, जयपुर, शिमला, देहरादून जैसे शहरों को फिल्म निर्माण के केन्द्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। कम लागत में स्थानीय रुचि की फिल्में बनाकर लाभ भी कमाया जा सकता है। इन दिनों मुंबई में हिंदी प्रदेश से आई अनेक प्रतिभाएं सहयोग देने की स्थिति में हैं। बस जरूरत है कि एक अभियान के रूप में हिंदी प्रदेश की सरकारें पहल करें। अगर यह संभव हुआ, तो हिंदी फिल्मों का भला होगा और यह शिकायत भी दूर होगी कि पता नहीं हिंदी फिल्मों में कौन-सी दुनिया दिखाई जाती है। फिल्मों में अपनी दुनिया देखनी है, तो पहल करनी पड़ेगी। शुद्ध मुनाफे से प्रेरित निर्माताओं को आम दर्शकों की दुनिया की फिक्र क्यों हो?
मुंबई में सक्रिय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे निश्चित समयावधि में अवसर और परिणाम हासिल किया जा सके। फिल्मी परिवार के बच्चों को इस विमर्श से अलग कर दें, तो भी कुछ उदाहरण मिल जाते हैं, जहां कुछ को तत्काल अवसर मिल जाते हैं। वे अपनी मेहनत, कोशिश और फिल्म से दर्शकों को पसंद आ जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद परिवारवाद, लॉबिंग और संकीर्णता के बावजूद हर साल 20 से 25 नए निर्देशक आ ही जाते हैं। पर्दे के पीछे और पर्दे के आगे भी हर साल नए तकनीशियन और कलाकार आते हैं। यह कहना अनुचित होगा कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नए लोगों को बिल्कुल जगह नहीं मिलती। जगह मिलती है, लेकिन उसके लिए संघर्ष, धैर्य, लगन और मुस्तैदी आवश्यक है।
बॉलीवुड में पूरे भारत, खासकर हिंदी प्रदेश से आए व्यक्तियों को अवसर नहीं मिलते। चूंकि फिल्म निर्माण एक व्यवसाय भी है। इसलिए नए व्यक्ति को अवसर देने से पहले कंपनियां अच्छी तरह सोच-विचार करती हैं। उन्हें ठोकने-बजाने के बाद ही फिल्मों में काम मिलता है। सिर्फ हिंदी प्रदेश की ही बात करें, तो उनकी कुल आबादी 60-65 करोड़ के आसपास होगी। हिंदी में इन दिनों 150 से 200 फिल्में बनती हैं। हर फिल्म के साथ कम से कम 500 से 750 व्यक्ति सक्रिय ढंग से जुड़े होते हैं। इन आंकड़ों के गुणनफल पर गौर करें, तो पाएंगे कि करोड़ों की आबादी में चंद लाख ही भाग्यशाली साबित होते हैं। हर पेशे में रोजगार का कमोवेश ऐसा ही दबाव है।
सही है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के विकेंद्रीकरण पर विचार-विमर्श आरंभ हो। आजादी से पहले कोलकाता, लाहौर और मुंबई में हिंदी फिल्में बनती थीं। उस दौर में मराठी, बंगाली और पंजाबी प्रतिभाओं ने हिंदी फिल्मों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आजादी के बाद मुंबई हिंदी फिल्मों का मुख्य निर्माण केन्द्र हो गई। बीच-बीच में चेन्नई और हैदराबाद में भी फिल्में बनती रहीं, लेकिन हिंदी प्रदेशों में फिल्म निर्माण पर जोर और ध्यान नहीं दिया गया। हिंदी प्रदेश की सरकारों ने कभी इस दिशा में प्रयास नहीं किया कि वे अपने प्रदेश की प्रतिभाओं को आमंत्रित करें और स्थानीय रचना, प्रतिभा और सुविधाओं का उपयोग करते हुए अपने प्रदेश के नागरिकों की रुचि की फिल्मों का निर्माण करें। नतीजा यह हुआ कि आजादी के 62 साल बाद भी इन प्रदेशों में फिल्म निर्माण की मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं।
अगर हिंदी प्रदेश की सरकारें आवश्यक सुविधाएं दें, तो वहां फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हो सकती है। इन दिनों हिंदी फिल्मों का कलेवर बदल चुका है। मुख्य रूप से मल्टीप्लेक्स के दर्शकों के लिए बन रही फिल्मों से देसी दर्शकों का मनोरंजन नहीं हो पा रहा है। बीच में भोजपुरी फिल्मों ने इस शून्य को भरा, लेकिन कुछ ही समय बाद सब खत्म हो गया। अब कोई ऐसी उम्मीद उसमें नजर नहीं आ रही है।
लखनऊ, पटना, भोपाल, जयपुर, शिमला, देहरादून जैसे शहरों को फिल्म निर्माण के केन्द्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। कम लागत में स्थानीय रुचि की फिल्में बनाकर लाभ भी कमाया जा सकता है। इन दिनों मुंबई में हिंदी प्रदेश से आई अनेक प्रतिभाएं सहयोग देने की स्थिति में हैं। बस जरूरत है कि एक अभियान के रूप में हिंदी प्रदेश की सरकारें पहल करें। अगर यह संभव हुआ, तो हिंदी फिल्मों का भला होगा और यह शिकायत भी दूर होगी कि पता नहीं हिंदी फिल्मों में कौन-सी दुनिया दिखाई जाती है। फिल्मों में अपनी दुनिया देखनी है, तो पहल करनी पड़ेगी। शुद्ध मुनाफे से प्रेरित निर्माताओं को आम दर्शकों की दुनिया की फिक्र क्यों हो?
Comments
आपकी बातों से मैं पूरी तरह सहमत हूँ .लेकिन मुश्किल यह है की सिर्फ यू पी में ही नहीं मुझे लगता है अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों में भी सरकार इस दिशा में बहुत ज्यादा प्रयास करती नहीं दिखाई देती .साथ ही यदि कोई सरकार इस दिशा में पहल करती भी है तो आने वाली दूसरी सरकार पहले किये गए सारे कामों या प्रस्तावों को ध्वस्त करके नए ढंग से उसी को शुरू करने लगती है .
अब यू पी में इसके पहले की सरकार ने फिल्म बंधू में जिन लोगों को रखा था .इस सरकार ने उन सभी को हटा कर अपने लोगों को बिठा दिया .
इस दिशा में तो मुझे लगता है फिल्म निर्माताओं को ही पहल करनी होगी .वैसे अIपने अपने लेख में इस विषय को उठाया इसके लिए आप को हार्दिक धन्यवाद .
शुभकामनाओं के साथ.
हेमंत कुमार