फ़िल्म समीक्षा:लक बाई चांस
फिल्म इंडस्ट्री की एक झलक
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से हम सभी वाकिफ हैं। इस इंडस्ट्री के ग्लैमर, गॉसिप और किस्से हम देखते, सुनते और पढ़ते रहते हैं। ऐसा लगता है कि मीडिया सिर्फ सनसनी फैलाने के लिए मनगढंत घटनाओं को परोसता रहता है। 'लक बाई चांस' देखने के बाद दर्शक पाएंगे कि मीडिया सच से दूर नहीं है। यह किसी बाहरी व्यक्ति की लिखी और निर्देशित फिल्म नहीं है। यह जोया अख्तर की फिल्म है, जिनकी सारी उम्र इंडस्ट्री में ही गुजरी है। उन्होंने बगैर किसी दुराव, छिपाव या बचाव के इंडस्ट्री का बारीक चित्रण किया है। लेकिन उनके चत्रिण को ही फिल्म इंडस्ट्री की वास्तविकता न समझें। यह एक हिस्सा है, जो जोया अख्तर दिखाना और बताना चाहती हैं।
विक्रम (फरहान अख्तर) और सोना (कोंकणा सेन शर्मा) फिल्म इंडस्ट्री में पांव टिकाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दोनों की कोशिश और कामयाबी के अलग किस्से हैं। वे दोनों कहीं जुड़े हुए हैं तो कहीं अलहदा हैं। विक्रम चुस्त, चालाक और स्मार्ट स्ट्रगलर है। वह अपना हित समझता है और मिले हुए अवसर का सही उपयोग करता है। फिल्म में पुराने समय की अभिनेत्री नीना का संवाद है 'कोई भी किसी का कुछ नहीं होताÓ। फिल्म इंडस्ट्री में बनते-बिगड़ते रिश्तों पर इस से संक्षिप्त और सारगर्भित टिप्पणी नहीं हो सकती। सोना थोड़ी भावुक और रिश्तों पर भरोसा करने वाली लडक़ी है। इसी कारण इस निष्ठुर इडस्ट्री में वह बार-बार सदमों का शिकार होती है। आखिरकार उसकी समझ में आता है कि अपनी भलाई ही आखिरी भलाई है। विक्रम और सोना की इस यात्रा में हम फिल्म इंडस्ट्री के अन्य किरदारों से भी वाकिफ होते हैं। उनकी असुरक्षा ही मुख्य रूप से उभरती है। लेखक से लेकर फिल्म स्टार तक काम और कामयाबी के लिए कोई भी चाल चल सकते हैं।
जोया अख्तर ने उपयुक्त कास्टिंग की है। स्ट्रगलर विक्रम की भूमिका में फरहान अख्तर जंचते हैं। इस फिल्म में वे 'रॉक ऑन' से ज्यादा विश्वसनीय लगे हैं। उनका आत्मविश्वास और हर तरह के दृश्य में उनकी सहजता प्रभावित करती है। मुमकिन है कि वे अलग किस्म के अभिनेता के तौर पर दमदार तरीके से उभरें। कोंकणा सेना शर्मा एक बार फिर अपनी प्रतिभा की झलक देती हैं। भावुक और नाटकीय दृश्यों में उनके चेहरे के बदलते भाव दृश्यों को जोरदार बना देते हैं। यह फिल्म ऋषि कपूर और डिंपल कपाडिय़ा के लिए भी उल्लेखनीय होगी। 'बॉबी' की जोड़ी को उम्रदराज भूमिकाओं में एक साथ देखना रोचक रहा। अतिथि भूमिकाओं में शाहरुख खान को अच्छे तरीके से पेश किया गया है। बाकी अभिनेताओं का उपयोग स्क्रिप्ट के मुताबिक है। उनमें उनकी व्यक्तिगत खासियत दर्ज नहीं होती। हां, रितिक रोशन स्थापित स्टार जफर खान के अहं और अहंकार को भलीभांति निभाते हैं।
'लक बाई चांस' में फिल्म शुरू होने के साथ स्याह और उदास चेहरों के जो स्लाइड दिखाए जाते हैं, उनके विस्तार में जोया नहीं गयी हैं। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के अंदरूनी संघर्ष, निराशा और साजिशों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। उनकी स्क्रिप्ट मुख्य रूप से निर्माता, डायरेक्टर, स्टार और स्ट्रगलर के बीच ही घूमती रहती है। फिल्म के संवाद विशष तौर पर उल्लेखनीय हैं। जावेद अख्तर के शब्द कानों में गीत की तरह गूंजते हैं - मौके मिलते नहीं, बनाए जाते हैं ... कामयाबी आती नहीं, हमें कामयाबी तक जाना होता है ... अपने रास्ते चलते रहो, सब उस रास्ते पर चले आएंगे ...। 'लक बाई चांस' में फिल्म इंडस्ट्री की प्रचलित जानकारियों के कई रेफरेंस हैं। सिनेप्रेमी दर्शक उन्हें जानते हैं, इसलिए फिल्म कारगर तरीके से कम्युनिकेट करती है।
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