पटना के रिजेंट सिनेमाघर में दो दिनों में तीन फिल्में
रिजेंट सिनेमाघर का टिकट (अगला-पिछला)
पटना का गांधी मैदान … कई ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा है। गांधी मैदान के ही एक किनारे बना है कारगिल चौक। कारगिल में शहीद हुए सैनिकों की याद दिलाते इस चौराहे के पास एलफिंस्टन, मोना और रिजेंट सिनेमाघर हैं। मोना का पुनरूद्धार चल रहा है। कहा जा रहा है कि इसे मल्टीप्लेक्स का रूप दिया जा रहा है। अगर जल्दी बन गया तो यह पटना का पहला मल्टीप्लेक्स होगा। वैसे प्रकाश झा भी एक मल्टीप्लेक्स पटना में बनवा रहे हैं। पटना के अलावा बिहार और झारखंड के दूसरे जिला शहरों में भी मल्टीप्लेक्स की योजनाएं चल रही हैं। पूरी उम्मीद है कि अगले एक-दो सालों में बिहार और झारखंड के दर्शकों का प्रोफाइल बदल जाएगा। सिनेमाघरों में भीड़ बढ़ेगी और उसके बाद उनकी जरूरतों का खयाल रखते हुए हिंदी सिनेमा भी बदलेगा।
फिलहाल, 1 अक्टूबर की बात है। भोजपुरी फिल्म 'हम बाहुबली' का प्रीमियर रिजेंट सिनेमाघर में रखा गया है। रिजेंट में आमतौर पर हिंदी फिल्में दिखाई जाती हैं। उस लिहाज से यह बड़ी घटना है। यहां यह बताना जरूरी होगा कि बिहार से हिंदी फिल्में लगभग बहिष्कृत हो चुकी हैं। ताजा उदाहरण 'हम बाहुबली' का ही लें। 2 अक्टूबर को यह फिल्म 35 प्रिंट्स के साथ रिलीज हुई, जबकि 'द्रोण' और 'किडनैप' को कुल 20 स्क्रीन ही मिल सके। मुंबई में बैठे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पंडितों, ट्रेड विशेषज्ञों और निर्माता-निर्देशकों के कानों पर अभी जूं नहीं रेंग रही है, लेकिन यह आगामी खतरे का संकेत है। हिंदी फिल्मों का साम्रा'य डांवाडोल स्थिति में है। इस साम्रा'य से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे क्षेत्र निकल रहे हैं। इन इलाकों में भोजपुरी फिल्में ही चलती हैं। जब से हिंदी सिनेमा ने विदेशों का रुख किया है, तब से उसके अपने दर्शक बिसूर रहे हैं। उन्हें हिंदी फिल्मों में अपनी धडक़न नहीं सुनाई पड़ती, इसलिए वे सिनेमाघरों में ही नहीं जाते। इन इलाकों में सफल रही पिछली हिंदी फिल्म 'विवाह' थी। हां, 'आपका सुरुर', 'जन्नत' और 'जाने तू या जाने ना' बिहार में पटना समेत अन्य शहरों में चलीं, लेकिन शहरी मिजाज की फिल्मों को दर्शकों ने देखना जरूरी नहीं समझा।
पटना के दर्शक बदल रहे हैं। पहले सिनेमाघरों में लड़कियां नाम मात्र की दिखती थीं। माना जाता था कि शरीफ घरों की लड़कियां अकेले सिनेमा देखने नहीं जातीं। इस बार लड़कियों के ग्रुप दिखे तो जवान जोड़े भी थे। जाहिर सी बात है कि वे कॉलेज से क्लास छोड़ कर आए होंगे। सिनेमाघरों में लड़कियों की बढ़ती तादाद सुखद ही कही जा सकती है। पटना जैसे शहरों में मध्यवर्ग और उ'चमध्वर्गीय परिवार के सदस्य सिनेमाघरों में नहीं जाते। वे घर पर ही पायरेटेड डीवीडी देख लेते हैं। घर पर डीवीडी देखना सस्ता, सुरक्षित और सुविधाजनक होता है। फिल्म की क्वालिटी से आम दर्शकों का अधिक मतलब नहीं रहता। पर्दे पर चल रही झिर-झिर तस्वीर काफी होती है। आवाज यानी कि साउंड गड़बड़ हो तो भी क्या फर्क पड़ता है …
ऐसा लगता है कि हिंदी प्रदेशों में लगभग एक सी हालत है। 'यादातर दर्शक सिनेमाघरों में नहीं जाते। सिनेमा देखने का संस्कार बदला है। इस बदलाव की एक वजह कानून-व्यवस्था भी है। चूंकि अधिकांश शहरों में महिलाओं की असुरक्षा बढ़ी है और सिनेमाघरों के दर्शकों का प्रोफाइल उजड्ड, बबदमाश और आवारा नौजवानों का हो गया है, इसलिए मध्यवर्गीय परिवार सिनेमाघरों से परहेज करने लगे हैं। बड़े शहरों और महानगरों के दर्शकों को छोटे शहरों के दर्शकों का डर समझ में नहीं आएगा। बात थोड़ी पुरानी हो गयी, लेकिन इवनिंग शो के बाद लड़कियों के अपहरण के किस्से तो पटना में सुनाए-बताए जाते रहे हैं। और फिर सिनेमाघरों की जो स्थिति है, उसमें जाने की हिम्मत कौन करे?
वैसे पिछले दिनों चवन्नी ने पटला के रिजेंट सिनेमाघर में दो दिनों में तीन फिल्में देखीं। पहली फिल्म 'हम बाहुबली' थी। प्रीमियर शो था। उस शो में फिल्म के निर्देशक अनिल अजिताभ के साथ मुख्य कलाकार रवि किशन,दिनेश लान निरहुआ,रिंकू घोष और मोनालिसा भी थे। प्रीमियर शो में बिहार के गर्वनर भी आए थे। अगले दिन चवन्नी ने रिजेंट में ही 'द्रोण' और 'किडनैप' देखी। एक ही सीट पर बैठ कर दो शो की दो फिल्मों का मजा ही कुछ और था। फिल्म के साथ चल रही दर्शकों की विशेष टिप्पणियों और सुझाव से फिल्म देखने का मजा बढ़ गया। चवन्नी को आश्चर्य नहीं हुआ कि दर्शक आने वाले दूश्य के साथ संवादो का भी सही अनुमान लगा रहे थे। क्या करें हिंदी फिल्मों का यही हाल है। दर्शकों के लिए कुछ भी अनजाना या नया नहीं रह गया है। अरे हां, चवन्नी यह बताना भूल रहा था कि 40 रूपए के टिकट में दो गर्मागर्म समोसे भी शामिल थे,जो ठीक इंटरवल के दस मिनट पहले सीट पर मिल गए थे। आप कोल्ट ड्रिंक लेना चाहते हों तो वह भी सीट पर मिल जाता है,लेकिन उसके लिए 14 रूपए देने पड़ते हैं। एक बात चवन्नी की समझ में नहीं आई कि सिनेमाघर का गेट सिफग् पांच मिनट पहले क्यों खुलता है? जब तक आप अपनी सीछ पर पहुचें और आंखें अंधेरे से एडजस्ट करें कि फिल्म शुरू हो जाती है।
यह तो हुई पटना में फिल्म देखने का ताजा अनुभव। चवन्नी चाहेगा कि आप भी अपने शहरों के सिनेमाघरों की स्थिति और दर्शकों के बदलते प्रोफाइल पर लिखें। पता तो चले कि फिल्मों के प्रति हिंदी समाज का क्या रवैया है?
फिलहाल, 1 अक्टूबर की बात है। भोजपुरी फिल्म 'हम बाहुबली' का प्रीमियर रिजेंट सिनेमाघर में रखा गया है। रिजेंट में आमतौर पर हिंदी फिल्में दिखाई जाती हैं। उस लिहाज से यह बड़ी घटना है। यहां यह बताना जरूरी होगा कि बिहार से हिंदी फिल्में लगभग बहिष्कृत हो चुकी हैं। ताजा उदाहरण 'हम बाहुबली' का ही लें। 2 अक्टूबर को यह फिल्म 35 प्रिंट्स के साथ रिलीज हुई, जबकि 'द्रोण' और 'किडनैप' को कुल 20 स्क्रीन ही मिल सके। मुंबई में बैठे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पंडितों, ट्रेड विशेषज्ञों और निर्माता-निर्देशकों के कानों पर अभी जूं नहीं रेंग रही है, लेकिन यह आगामी खतरे का संकेत है। हिंदी फिल्मों का साम्रा'य डांवाडोल स्थिति में है। इस साम्रा'य से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे क्षेत्र निकल रहे हैं। इन इलाकों में भोजपुरी फिल्में ही चलती हैं। जब से हिंदी सिनेमा ने विदेशों का रुख किया है, तब से उसके अपने दर्शक बिसूर रहे हैं। उन्हें हिंदी फिल्मों में अपनी धडक़न नहीं सुनाई पड़ती, इसलिए वे सिनेमाघरों में ही नहीं जाते। इन इलाकों में सफल रही पिछली हिंदी फिल्म 'विवाह' थी। हां, 'आपका सुरुर', 'जन्नत' और 'जाने तू या जाने ना' बिहार में पटना समेत अन्य शहरों में चलीं, लेकिन शहरी मिजाज की फिल्मों को दर्शकों ने देखना जरूरी नहीं समझा।
पटना के दर्शक बदल रहे हैं। पहले सिनेमाघरों में लड़कियां नाम मात्र की दिखती थीं। माना जाता था कि शरीफ घरों की लड़कियां अकेले सिनेमा देखने नहीं जातीं। इस बार लड़कियों के ग्रुप दिखे तो जवान जोड़े भी थे। जाहिर सी बात है कि वे कॉलेज से क्लास छोड़ कर आए होंगे। सिनेमाघरों में लड़कियों की बढ़ती तादाद सुखद ही कही जा सकती है। पटना जैसे शहरों में मध्यवर्ग और उ'चमध्वर्गीय परिवार के सदस्य सिनेमाघरों में नहीं जाते। वे घर पर ही पायरेटेड डीवीडी देख लेते हैं। घर पर डीवीडी देखना सस्ता, सुरक्षित और सुविधाजनक होता है। फिल्म की क्वालिटी से आम दर्शकों का अधिक मतलब नहीं रहता। पर्दे पर चल रही झिर-झिर तस्वीर काफी होती है। आवाज यानी कि साउंड गड़बड़ हो तो भी क्या फर्क पड़ता है …
ऐसा लगता है कि हिंदी प्रदेशों में लगभग एक सी हालत है। 'यादातर दर्शक सिनेमाघरों में नहीं जाते। सिनेमा देखने का संस्कार बदला है। इस बदलाव की एक वजह कानून-व्यवस्था भी है। चूंकि अधिकांश शहरों में महिलाओं की असुरक्षा बढ़ी है और सिनेमाघरों के दर्शकों का प्रोफाइल उजड्ड, बबदमाश और आवारा नौजवानों का हो गया है, इसलिए मध्यवर्गीय परिवार सिनेमाघरों से परहेज करने लगे हैं। बड़े शहरों और महानगरों के दर्शकों को छोटे शहरों के दर्शकों का डर समझ में नहीं आएगा। बात थोड़ी पुरानी हो गयी, लेकिन इवनिंग शो के बाद लड़कियों के अपहरण के किस्से तो पटना में सुनाए-बताए जाते रहे हैं। और फिर सिनेमाघरों की जो स्थिति है, उसमें जाने की हिम्मत कौन करे?
वैसे पिछले दिनों चवन्नी ने पटला के रिजेंट सिनेमाघर में दो दिनों में तीन फिल्में देखीं। पहली फिल्म 'हम बाहुबली' थी। प्रीमियर शो था। उस शो में फिल्म के निर्देशक अनिल अजिताभ के साथ मुख्य कलाकार रवि किशन,दिनेश लान निरहुआ,रिंकू घोष और मोनालिसा भी थे। प्रीमियर शो में बिहार के गर्वनर भी आए थे। अगले दिन चवन्नी ने रिजेंट में ही 'द्रोण' और 'किडनैप' देखी। एक ही सीट पर बैठ कर दो शो की दो फिल्मों का मजा ही कुछ और था। फिल्म के साथ चल रही दर्शकों की विशेष टिप्पणियों और सुझाव से फिल्म देखने का मजा बढ़ गया। चवन्नी को आश्चर्य नहीं हुआ कि दर्शक आने वाले दूश्य के साथ संवादो का भी सही अनुमान लगा रहे थे। क्या करें हिंदी फिल्मों का यही हाल है। दर्शकों के लिए कुछ भी अनजाना या नया नहीं रह गया है। अरे हां, चवन्नी यह बताना भूल रहा था कि 40 रूपए के टिकट में दो गर्मागर्म समोसे भी शामिल थे,जो ठीक इंटरवल के दस मिनट पहले सीट पर मिल गए थे। आप कोल्ट ड्रिंक लेना चाहते हों तो वह भी सीट पर मिल जाता है,लेकिन उसके लिए 14 रूपए देने पड़ते हैं। एक बात चवन्नी की समझ में नहीं आई कि सिनेमाघर का गेट सिफग् पांच मिनट पहले क्यों खुलता है? जब तक आप अपनी सीछ पर पहुचें और आंखें अंधेरे से एडजस्ट करें कि फिल्म शुरू हो जाती है।
यह तो हुई पटना में फिल्म देखने का ताजा अनुभव। चवन्नी चाहेगा कि आप भी अपने शहरों के सिनेमाघरों की स्थिति और दर्शकों के बदलते प्रोफाइल पर लिखें। पता तो चले कि फिल्मों के प्रति हिंदी समाज का क्या रवैया है?
Comments
dekhiye hamari prodyogiki isapar kab vijay pati hai.
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