हिंदी प्रदेशों की उपेक्षा करते हैं स्टार
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों के बड़े स्टार हिंदी प्रदेशों के शहरों में जाने से हिचकिचाते हैं। उनकी कोशिश होती है कि पटना, लखनऊ, भोपाल, जयपुर या शिमला जाने की जरूरत न पड़े तो अच्छा। यहां तक कि फिल्मों के प्रचार के सिलसिले में भी वे दिल्ली और कोलकाता जाकर संतुष्ट हो जाते हैं। बताने की आवश्यकता नहीं है कि उनकी इस उपेक्षा से उनका ही नुकसान होता है। उत्तर भारत के शहरों में जाकर प्रचार करने से उन्हें अपनी फिल्मों के अतिरिक्त दर्शक मिल सकते हैं और फिल्मों का बिजनेस बढ़ सकता है।
हिन्दी फिल्मों का बाजार और प्रचार तंत्र मुख्य रूप से संपन्न दर्शकों से ही प्रभावित होता है। बड़े शहरों के मल्टीप्लेक्स में टिकट की कीमत इन दिनों कम से कम सौ रुपये होती है, जो पहले हफ्ते में ढाई सौ रुपये तक पहुंच जाती है। फिर एक-एक मल्टीप्लेक्स में नई फिल्मों के 20 से 36 शो तक होते हैं। इस तरह चंद दिनों में ही प्रति प्रिंट भारी रकम की वसूली हो जाती है। इसके विपरीत छोटे शहरों में सिनेमाघरों की टिकटों की अधिकतम कीमत सौ रुपये है। सिंगल स्क्रीन में फिल्म लगी हो, तो उसके ज्यादा से ज्यादा पांच शो रोजाना हो पाते हैं। अगर हिसाब लगाएं, तो सिंगल स्क्रीन की हफ्ते भर की कमाई मल्टीप्लेक्स में एक दिन में ही हो जाती है। यही कारण है कि निर्माता और स्टार सातगुनी कमाई पर विशेष ध्यान देते हैं और अपेक्षाकृत कम आमदनी के स्रोत को नजरंदाज करते हैं। छोटे शहर और छोटे शहरों के दर्शकों की उपेक्षा में उन्हें संकोच नहीं होता।
पिछले हफ्ते रिलीज हुई दो बड़ी फिल्मों के प्रचार के सिलसिले में संबंधित सितारों की सक्रियता पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाएगा कि किस प्रकार सिर्फ मेट्रो और बड़े शहरों के दर्शकों को ही ध्यान में रखा जा रहा है। फिल्मों का प्रचार तंत्र मानता है कि मुंबई में कोई भी चर्चा हो, तो वह छन कर छोटे शहरों तक पहुंच जाती है। चूंकि ज्यादातर टीवी चैनलों के दफ्तर मुंबई में हैं और अखबारों के दफ्तर या ब्यूरो भी मुंबई में हैं, इसलिए कई बार मुंबई से बाहर गए बिना भी उनका काम चल जाता है। चूंकि मुंबई में हुआ प्रचार और कवरेज उन्हें आत्मसुख देता है, इसलिए भी उनके प्रचार अधिकारी उन पत्र-पत्रिकाओं और शहरों की तरफ ध्यान नहीं देते, जिनके कवरेज जंगल में मोर के नाच की तरह होते हैं। यहां आंखों के सामने छोटे से छोटे कवरेज भी उनके इगो की मालिश करता है। इस प्रचार तंत्र में अंग्रेजी अखबारों और समाचार चैनलों को प्रमुखता दी जाती है। प्रशंसकों से घिरे और ग्लैमर की चकाचौंध में अंधे हुए स्टार मुंबई के बाहर की सच्चाई से अपरिचित होते हैं। उन्हें यह अहसास दिला दिया जाता है कि चंद इंटरव्यू से ही काम हो जाएगा। सफल फिल्मों के आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि हिंदी प्रदेशों में उनकी कमाई का प्रतिशत क्या रहा है? ऐसा नहीं है कि हिंदी प्रदेशों के दर्शक फिल्में नहीं देखते। वे खूब देखते हैं, लेकिन उतने नहीं, जितने बड़े शहरों के दर्शक सिनेमाघरों में दिखाई देते हैं। वजह साफ है, फिल्मों से दर्शकों का रिश्ता नहीं बन पाता। पिछले दिनों रिलीज जब वी मेट के कलाकार कई शहरों में नहीं गए। अगर ये स्टार और फिल्मों के प्रचारक छोटे शहरों पर ध्यान दें, तो निश्चित रूप से हिंदी प्रदेशों में उनकी कमाई का प्रतिशत बढ़ सकता है।
कैसी विडंबना है कि हिंदी प्रदेशों के दर्शकों की तरफ हिंदी फिल्मों के निर्माता, निर्देशक और स्टारों का ध्यान नहीं है। क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि कभी लखनऊ, भोपाल, पटना, शिमला या जयपुर में किसी हिंदी फिल्म का भव्य प्रीमियर होगा! लंदन, न्यूयॉर्क और टोरंटो में फिल्मों के प्रीमियर से गौरवान्वित होने वाले स्टारों से हम ऐसी उम्मीद करें भी तो कैसे?
हिंदी फिल्मों के बड़े स्टार हिंदी प्रदेशों के शहरों में जाने से हिचकिचाते हैं। उनकी कोशिश होती है कि पटना, लखनऊ, भोपाल, जयपुर या शिमला जाने की जरूरत न पड़े तो अच्छा। यहां तक कि फिल्मों के प्रचार के सिलसिले में भी वे दिल्ली और कोलकाता जाकर संतुष्ट हो जाते हैं। बताने की आवश्यकता नहीं है कि उनकी इस उपेक्षा से उनका ही नुकसान होता है। उत्तर भारत के शहरों में जाकर प्रचार करने से उन्हें अपनी फिल्मों के अतिरिक्त दर्शक मिल सकते हैं और फिल्मों का बिजनेस बढ़ सकता है।
हिन्दी फिल्मों का बाजार और प्रचार तंत्र मुख्य रूप से संपन्न दर्शकों से ही प्रभावित होता है। बड़े शहरों के मल्टीप्लेक्स में टिकट की कीमत इन दिनों कम से कम सौ रुपये होती है, जो पहले हफ्ते में ढाई सौ रुपये तक पहुंच जाती है। फिर एक-एक मल्टीप्लेक्स में नई फिल्मों के 20 से 36 शो तक होते हैं। इस तरह चंद दिनों में ही प्रति प्रिंट भारी रकम की वसूली हो जाती है। इसके विपरीत छोटे शहरों में सिनेमाघरों की टिकटों की अधिकतम कीमत सौ रुपये है। सिंगल स्क्रीन में फिल्म लगी हो, तो उसके ज्यादा से ज्यादा पांच शो रोजाना हो पाते हैं। अगर हिसाब लगाएं, तो सिंगल स्क्रीन की हफ्ते भर की कमाई मल्टीप्लेक्स में एक दिन में ही हो जाती है। यही कारण है कि निर्माता और स्टार सातगुनी कमाई पर विशेष ध्यान देते हैं और अपेक्षाकृत कम आमदनी के स्रोत को नजरंदाज करते हैं। छोटे शहर और छोटे शहरों के दर्शकों की उपेक्षा में उन्हें संकोच नहीं होता।
पिछले हफ्ते रिलीज हुई दो बड़ी फिल्मों के प्रचार के सिलसिले में संबंधित सितारों की सक्रियता पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाएगा कि किस प्रकार सिर्फ मेट्रो और बड़े शहरों के दर्शकों को ही ध्यान में रखा जा रहा है। फिल्मों का प्रचार तंत्र मानता है कि मुंबई में कोई भी चर्चा हो, तो वह छन कर छोटे शहरों तक पहुंच जाती है। चूंकि ज्यादातर टीवी चैनलों के दफ्तर मुंबई में हैं और अखबारों के दफ्तर या ब्यूरो भी मुंबई में हैं, इसलिए कई बार मुंबई से बाहर गए बिना भी उनका काम चल जाता है। चूंकि मुंबई में हुआ प्रचार और कवरेज उन्हें आत्मसुख देता है, इसलिए भी उनके प्रचार अधिकारी उन पत्र-पत्रिकाओं और शहरों की तरफ ध्यान नहीं देते, जिनके कवरेज जंगल में मोर के नाच की तरह होते हैं। यहां आंखों के सामने छोटे से छोटे कवरेज भी उनके इगो की मालिश करता है। इस प्रचार तंत्र में अंग्रेजी अखबारों और समाचार चैनलों को प्रमुखता दी जाती है। प्रशंसकों से घिरे और ग्लैमर की चकाचौंध में अंधे हुए स्टार मुंबई के बाहर की सच्चाई से अपरिचित होते हैं। उन्हें यह अहसास दिला दिया जाता है कि चंद इंटरव्यू से ही काम हो जाएगा। सफल फिल्मों के आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि हिंदी प्रदेशों में उनकी कमाई का प्रतिशत क्या रहा है? ऐसा नहीं है कि हिंदी प्रदेशों के दर्शक फिल्में नहीं देखते। वे खूब देखते हैं, लेकिन उतने नहीं, जितने बड़े शहरों के दर्शक सिनेमाघरों में दिखाई देते हैं। वजह साफ है, फिल्मों से दर्शकों का रिश्ता नहीं बन पाता। पिछले दिनों रिलीज जब वी मेट के कलाकार कई शहरों में नहीं गए। अगर ये स्टार और फिल्मों के प्रचारक छोटे शहरों पर ध्यान दें, तो निश्चित रूप से हिंदी प्रदेशों में उनकी कमाई का प्रतिशत बढ़ सकता है।
कैसी विडंबना है कि हिंदी प्रदेशों के दर्शकों की तरफ हिंदी फिल्मों के निर्माता, निर्देशक और स्टारों का ध्यान नहीं है। क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि कभी लखनऊ, भोपाल, पटना, शिमला या जयपुर में किसी हिंदी फिल्म का भव्य प्रीमियर होगा! लंदन, न्यूयॉर्क और टोरंटो में फिल्मों के प्रीमियर से गौरवान्वित होने वाले स्टारों से हम ऐसी उम्मीद करें भी तो कैसे?
Comments
यही तो विडम्बना है कि फ़िल्में हिन्दी में हैं और हिन्दीभाषी दर्शकवर्ग को ही दोयम दर्ज़े का समझा जाता है। तभी तो आजकल की अधिकांश फ़िल्में देखकर लगता है कि अपनी ज़मीन से कितना दूर हैं।
प्रीमियर के दिन शाहरुख विदेश पहुँच जाते हैं क्योंकि एक डॉलर में चालीस रुपए मिलते हैं ना!
सब खेल पैसे का है।
dor jaisi filmo ko flop karvate hai.
chote shaher ke loag bade staro ke filmo ka intizaar karte hai bade star chote shaher ke loago ko nazar andaz karte hai .apne bahot achcha likha hai.